जब तैं बगियन पै बगरो बसंत
महंतन के मन महके
मन महके, वन-उपवन महके
सुधि आये विदिसिया कंत
महंतन के मन महके
जब तैं बगियन पै....
खेत-खेत सरसों हिलै औरु जमुहावै
भौंरन कौं देखि कै अँगुरिया हिलावै
निरखि पाँव भारी, मटर प्रान प्यारी के
गेहूँ हुइ गए संत
महंतन के मन महके
जब तैं बगियन पै....
देखि खिले फूल, मनु फूलो ना समावै
अनछुई सुगंध अनिबंध तोरे जावै
मुँह बिदुरावै, अँगूठा दिखावै, ललचावै-
हवा दिग-दिगंत
महंतन के मन महके
जब तैं बगियन पै....
शब्दन नै ओढ़ि लए गंध के अँगरखे
पालकी मैं बैठि गीत निकसि परे घर से
छंदमुक्त कविता से उकसे बबूल शूल
मुकरी सों मादक वसंत
महंतन के मन महके
जब तैं बगियन पै....
-डा० जगदीश व्योम
4 comments:
बहुत सुन्दर नवगीत है व्योम जी ...
आंचलिक भाषा ने और मधुर बना दिया है ये गीत ...
खूब बधाई।
बहुत बहुत सुन्दर रचना
basant par achhi kavita
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