Monday, February 15, 2021

जब तैं बगियन पै बगरो

 जब तैं बगियन पै बगरो बसंत
महंतन के मन महके
मन महके, वन-उपवन महके
सुधि आये विदिसिया कंत
महंतन के मन महके
जब तैं बगियन पै....

खेत-खेत सरसों हिलै औरु जमुहावै
भौंरन कौं देखि कै अँगुरिया हिलावै
निरखि पाँव भारी, मटर प्रान प्यारी के
गेहूँ हुइ गए संत
महंतन के मन महके
जब तैं बगियन पै....

देखि खिले फूल, मनु फूलो ना समावै
अनछुई सुगंध अनिबंध तोरे जावै
मुँह बिदुरावै, अँगूठा दिखावै, ललचावै-
हवा दिग-दिगंत
महंतन के मन महके
जब तैं बगियन पै....

शब्दन नै ओढ़ि लए गंध के अँगरखे
पालकी मैं बैठि गीत निकसि परे घर से
छंदमुक्त कविता से उकसे बबूल शूल
मुकरी सों मादक वसंत
महंतन के मन महके
जब तैं बगियन पै....

-डा० जगदीश व्योम

4 comments:

दिगम्बर नासवा said...

बहुत सुन्दर नवगीत है व्योम जी ...
आंचलिक भाषा ने और मधुर बना दिया है ये गीत ...

PRAKRITI DARSHAN said...

खूब बधाई।

आलोक सिन्हा said...

बहुत बहुत सुन्दर रचना

INDIAN the friend of nation said...

basant par achhi kavita