इतना भी
आसान कहाँ है
पानी को पानी कह पाना!
आसान कहाँ है
पानी को पानी कह पाना!
कुछ सनकी
बस बैठे ठाले
सच के पीछे पड़ जाते हैं
भले रहें गर्दिश में
लेकिन अपनी
ज़िद पर अड़ जाते हैं
युग की इस
उद्दण्ड नदी में
सहज नहीं उल्टा बह पाना
इतना भी.... !!
यूँ तो सच के
बहुत मुखौटे
कदम-कदम पर
दिख जाते हैं
जो कि इंच भर
सुख की ख़ातिर
फुटपाथों पर
बिक जाते हैं
सोचो!
इनके साथ सत्य का
कितना मुश्किल है रह पाना
इतना भी............. !!
जिनके श्रम से
चहल-पहल है
फैली है
चेहरों पर लाली
वे शिव हैं
अभिशप्त समय के
लिये कुण्डली में
कंगाली
जिस पल शिव,
शंकर में बदले
मुश्किल है ताण्डव सह पाना
इतना भी... !!
-डा० जगदीश व्योम
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==इस नवगीत पर सुप्रसिद्ध समीक्षक श्रीधर मिश्र की टिप्पणी==
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इस गीत में व्योम की परम्परा प्रज्ञा स्पष्ट परिलक्षित होती है, वे बड़ी गहराई से अपने समकाल की छानबीन करते हैं, इस आकलन परिकलन में वे अपनी परम्परा का पुनर्पाठ करते हुए अपने इतिहासबोध के द्वारा अतीत से एक पुल बनाते हैं।
आज चीजों को उनके नाम से पुकारना, उन्हें खतरे में डालने जैसा हो गया है, सच के मुखौटों का कदम कदम पर दिखना व थोड़े से स्वार्थ में उनका फुटपाथ जैसी स्तरहीन दुकानों पर औने पौने में बिक जाना, आज के मूल्यक्षरण की अपसंस्कृति व बाजारवादी सभ्यता का यथार्थ काव्यांकन है।
अंतिम बन्द के क्रांतिधर्मी स्वर के संयोजन में व्योम का कलात्मक संयम द्रष्टव्य है,जिस श्रमिक व सर्वहारा वर्ग के श्रम से दुनिया के चेहरे पर लालिमा की दीप्ति है, व्योम उन्हें ही शिव कहते हैं, यह मार्क्सवादी सौंदर्य का प्रत्यय है जिसमें श्रम के सौंदर्य को ही सर्वोपरि माना गया है, व्योम उन्हें शिव की संज्ञा से अभिहित करते हैं, शिव ही भारतीय मनीषा में कल्याणकारी हैं, वे श्रमिक ही शिव हैं ,शुभ हैं, कल्याणकारी हैं ,जिनके श्रम के सत्य से दुनिया के चेहरे पर लालिमा का सौंदर्य है, यही सत्यम शिवम सुंदरम की इस गीत में की गई प्रतिष्ठा है, व्योम का अमर्ष यह है कि वे शिव स्वरूप श्रमिक दुनिया को सुंदर बनाने के प्रतिफलन में विपन्नता व दरिद्रता भोगने को अभिशप्त हैं, यदि वे शिव से शंकर हुए तो यह दुनिया विरूपित हो जाएगी, क्योंकि शंकर विनाश के प्रतीक हैं, शंकर को शिव होने में कई हजार वर्ष लगते हैं,तब वे अपने विनाशी चरित्र से कल्याणकारी स्वरूप को प्राप्त करते हैं, अतः यह गीत यह प्रस्ताव करता है कि व्यवस्था, सत्ता व जिम्मेदार सामाजिक संस्थाओं को जितना शीघ्र हो, इस पर विचार कर उनके साथ न्याय करने की पहल शुरू कर देनी चाहिए।
शंकर के शिव - विनाश से कल्याण की यह स्थापना व्योम के गहन परम्पराबोध के कारण सम्भव हो सकी है, इसीलिए टी0 एस0 इलियट अपने निबंध " ट्रेडिशन एंड इंडिविजुअल टैलेंट" में कवि के लिए व्यक्तिगत प्रज्ञा की अपेक्षा, उसके परम्पराबोध को अधिक महत्व देता है।
व्योम के कुछ अन्य गीत भी यहाँ पढ़ने को मिले हैं, उनके गीतों का भाषिक विन्यास सहज सरल लेकिन विराट भाव बोध लिए हुए है, छायावादोत्तर काल में जिन कवियों ने छायावाद से विद्रोह कर गीत में जीवन सन्दर्भों व समय समाज को विषयवस्तु के रूप में आयत्त किया वे गीत को जीवन के करीब तो ले आये लेकिन उनमें से बहुतायत कवि छायावाद की रहस्यवादी चित्रात्मक भाषा शैली से मुक्त नहीं हो पाए, जिससे उनमें दुरूहता बनी रह गयी, और 80 के दशक के उत्तरार्ध में नई कविता की दुरूहता ने भी नवगीत को इस सन्दर्भ में बहुत प्रभावित किया, व्योम इस लिए कुछ अधिक प्रभावित करते हैं कि उनके गीत चित्रभाषा शैली की रहस्यमयता व दुरूहता से सर्वथा मुक्त हैं, परम्परा से प्राप्त मिथकों, प्रतीकों, विश्वासों व अपने समय की बोलचाल की लोकशब्दावली के संविलयन से बनी उनकी काव्यभाषा वस्तुतः हिंदी की मूल प्रवृति की समावेशी भाषा है, अतः उसका रेंज बड़ा है।
एक बहुत अच्छे गीत के लिए उन्हें बधाई..
-श्रीधर मिश्र
3 comments:
‘इतना भी आसान कहाँ है..‘बहुत सुंदर भावाभिव्यक्ति । आदरणीय श्री व्योम जी हार्दिक बधाई एवं शुभकामनाएँ 💐रेणु चन्द्रा
बहुत सुंदर समीक्षा के लिए आदरणीय श्रीधर मिश्र जी को हार्दिक बधाई ।
धन्यवाद रेणु माथुर जी
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